Thursday, April 8, 2010

राही

हूँ राही मैं अकेला चलना मेरा करम है
ना रास्ता पता है न मंजिल की कोई नज़र है
ना आशियाँ मेरा है ना कोई हमसफ़र है
इक बात का पता है बस इतनी सी ख़बर है
हूँ राही मैं अकेला चलना मेरा करम है

ना जनता मैं कौन हूँ कहाँ से मैं उठा था
ना है पता मुझे की किस राह कल चला था
कब सोंचा था यहाँ पे क्या पाया क्या है खोया
ना स्वप्न थे जहन में ना था कभी मैं सोया
कब आई थी ख़ुशी कब था ग़मों में रोया

सोंचा था इस किनारे कुछ देर और रुकूंगा
इक प्यारी सी कली की खूबसूरती लिखूंगा
ना जाने इस फिजां पर अन्धकार कब है छा गया
उस बाग़ की कली को खिजां कब है खा गया
मैं देखता रहा बस मुस्कराया और फिर चल दिया

इक रौशनी को देखा उस क्षितिज में धूमिल सी
जा पहुचा मैं वहां पर जहाँ बैठे थे सभी
वे लोग वो थे जिनको मैंने देखा था कभी
तभी अचानक मैंने पाया उसी कली को
आया मुझे समझ तब आ पंहुचा मैं कहाँ पर
अब ना रास्ता है आगे मंजिल ना कोई सफर है
हूँ राही मैं अकेला.....................

10 comments:

  1. यह कविता जिंदगी के एक सबसे बड़े सत्य और सबसे कड़वे सत्य को दर्शाता है | इस दुनिया में ज्यादातर इंसान काल्पनिक जिंदगी जीते हैं |उन्हें यह पता नहीं कि वे कौन हैं, वे यह नहीं जानते कि वो इस इस दुनिया में क्यूं आये हैं? लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो जिंदगी के सत्य को जानना चाहते हैं| वे जिंदगी के हर उस पहलु को समझना चाहते हैं| वे हर उस प्रश्न का उत्तर जानना चाहते हैं जिसे कभी किसी ने ना खोजा और ना ही खोजना जरूरी समझा|

    इस कविता में उस इंसान कि जगह पर मैंने अपने आप को रखा है| उस इंसान कि तरह मैं भी जानना चाहता हूं मैं कौन हूँ? मैं कहाँ से आया हूँ? मुझे कहाँ जाना है? मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं एक राही हूँ जो बस चला जा रहा है , कहाँ, पता नहीं, क्यूं, पता नहीं, पर ऐसा लगता है कि बस चलना ही मेरी फितरत है|

    इस रास्ते ने मुझे वो सब दिखाया, वो सब मुझे सिखाया कि आज मैं बस एक मूकदर्शक बनकर रह गया हूँ, जबकि मैंने बहुत कुछ बदलते देखा अपने आँखों के सामने, कई अपने मेरा साथ छोड़कर चले गए, कुछ देर मैं रुका कि शायद कोई आयेगा, कोई आयेगा जो मेरे हांथों को थामकर इस रास्ते के मुकाम तक मेरा साथ देगा, पर शायद अकेला चलना ही मेरी तक़दीर है, मेरी किस्मत है|
    बस मैं चलता रहा| कुछ दूर मैंने देखा धूमिल सी रौशनी को, जब मैं वहां गया तो मैंने उन् लोगों को वहाँ पाया जो रास्ते में मुझे छोड़ गए थे, कुछ आगे निकल गए थे और कुछ रास्ते पर ही थककर गिर गए थे| उनको देखकर मुझे एहसास हुआ मैं कहाँ आ पंहुचा, मुझे तब समझ आया कि यही मेरी मंजिल, यही मेरा मुकाम है, इसके आगे ना तो अब कोई रास्ता है, ना कोई मंजिल है|


    यहाँ यह आखिरी मंजिल कुछ और नहीं जिंदगी का सबसे कड़वा सच है जो एक इंसान के जन्म के साथ ही उसकी तक़दीर के साथ जुड़ जाता है, जिसे वह इंसान क्या कोई भी नहीं बदल सकता है, एक सत्य जिसे सबको अपनाना चाहिए, जिसे सब जानते हैं, पर फिर भी इससे अनजान बनते हैं और ना जाने कैसे सत्य कि तलाश करते हैं| यह मंजिल है मृत्यु|

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  2. इस कविता में उस इंसान कि जगह पर मैंने अपने आप को रखा है| उस इंसान कि तरह मैं भी जानना चाहता हूं मैं कौन हूँ? मैं कहाँ से आया हूँ? मुझे कहाँ जाना है? मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं एक राही हूँ जो बस चला जा रहा है , कहाँ, पता नहीं, क्यूं, पता नहीं, पर ऐसा लगता है कि बस चलना ही मेरी फितरत है|

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  3. ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है .

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  4. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
    मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि॥
    - श्रीमदभगवतगीता

    टैगोर जी ने भी कहा है की "एकला चलो रे" अर्थात हे मानव तू अपने पथ पर अकेले ही चल, बाकि खुद बखुद तेरे संग हो लेंगे...

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  5. ब्लॉग की इस दिलचस्प दुनिया में
    आपका तहेदिल से स्वागत

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  6. हिंदी में आपका लेखन सराहनीय है... इसी तरह तबियत से लिखते रहिये.

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  7. very inspiring.... i was feeling a little low today but felt good after reading this piece... really impressive...

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  8. इस नए चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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