Friday, May 21, 2010

आशा

देख उन घने बादलों के परे भी तेरा कोई ना कोई इक आशियाँ होगा
रात के साए ना होंगे बस,कल फिर से तेरे लिए एक नया सवेरा होगा
कोई करता होगा तेरा इंतज़ार फिर से, यहाँ अब ना कभी तू अकेला होगा
थाम ले हाँथ तू अपने हमसफ़र का, कि तन्हाइयों का अब ना यहाँ कोई बसेरा होगा
देख उन घने बादलों ................................

Friday, May 7, 2010

इन्तजार

हर वक़्त बस तेरा इन्तजार था मुझको
तु आयेगी एक दिन ये एहसास था मुझको
बस बैठा रहा तेरी राहों में मैं ये सोंचकर
कि मेरी नब्ज की उठती लहरों का आगाज था तुझको

चाहा था मैं तुझको अपना खुदा जानकर
कि फ़ना कर दिया खुद को मैंने प्यार में तेरे
तेरे हर लब्ज को तराशा मैंने आयतों कि तरह
कि बना दिया काफिर खुद को खुदाई में मैंने

उस मंजर में भी मुझको इन्तजार था बस तेरा
आयेगी तु और थामेगी अपने हाँथ में हांथों को मेरा
ख्वाहिश थी उस पल करूँ बस दीदार तेरी आँखों का
पर छोड़ दिया था दिल कि धड़कन ने साथ अब मेरा

आज भी गुजरता हूँ तेरे कूंचों से मैं हर वक़्त
तुझको छुते हवा के ये झोंके अब पहचान है मेरी
रहे ये मुस्कान सदा यूही तेरे होंठों पर
कि तेरी आँखों कि नमी उड़ना अब शान है मेरी

Thursday, April 8, 2010

राही

हूँ राही मैं अकेला चलना मेरा करम है
ना रास्ता पता है न मंजिल की कोई नज़र है
ना आशियाँ मेरा है ना कोई हमसफ़र है
इक बात का पता है बस इतनी सी ख़बर है
हूँ राही मैं अकेला चलना मेरा करम है

ना जनता मैं कौन हूँ कहाँ से मैं उठा था
ना है पता मुझे की किस राह कल चला था
कब सोंचा था यहाँ पे क्या पाया क्या है खोया
ना स्वप्न थे जहन में ना था कभी मैं सोया
कब आई थी ख़ुशी कब था ग़मों में रोया

सोंचा था इस किनारे कुछ देर और रुकूंगा
इक प्यारी सी कली की खूबसूरती लिखूंगा
ना जाने इस फिजां पर अन्धकार कब है छा गया
उस बाग़ की कली को खिजां कब है खा गया
मैं देखता रहा बस मुस्कराया और फिर चल दिया

इक रौशनी को देखा उस क्षितिज में धूमिल सी
जा पहुचा मैं वहां पर जहाँ बैठे थे सभी
वे लोग वो थे जिनको मैंने देखा था कभी
तभी अचानक मैंने पाया उसी कली को
आया मुझे समझ तब आ पंहुचा मैं कहाँ पर
अब ना रास्ता है आगे मंजिल ना कोई सफर है
हूँ राही मैं अकेला.....................

इंसान हूँ मैं??????????

इंसान हूँ मैं या उस कवि की रचना का मूल हूँ मैं?
एक रहस्य, एक प्रश्न या फिर एक अनसुलझी पहेली हूँ मैं?
हास-परिहास व्यंग्य या फिर निराशा का प्रतीक हूँ मैं?
क्या उस वीणा की टूटी हुई तारों की तकदीर हूँ मैं?
इंसान हूँ मैं या उस कवि की रचना का मूल हूँ मैं?
ना जाने कितनी पढ़ा समझा और टटोला गया
कितनी आंखों से आंसू गिरे, कितनो को पोंछा गया
सदियाँ बीत गई फिर भी खड़ा रहा मैं वहीँ पर
समेटकर अपने अंदर दर्द और ग़मों की लकीर को मैं
इंसान हूँ मैं या उस कवि की रचना का मूल हूँ मैं?
देखा है अनगिनत हस्तियों को उठते, उठकर गिरते हुए
देखा है क्रोध द्वेष की ज्वाला में जिंदगियां जलते हुए
भाई-भाई को ही लड़ते और घरों में सरहदें पड़ते हुए
प्यार के धागों को तोड़ मोतियों को बिखरते हुए
सोंचा मैंने ख़ुद पर, कौन हूँ मैं कैसी अनसुनी गीत हूँ मैं?
इंसान हूँ मैं या उस कवि की रचना का मूल हूँ मैं??

Wednesday, April 7, 2010

my life

my life

जब भी देखता हूँ मैं तुमको ना जाने क्यूँ अपना सा लगता है
दिल की धड़कन रुक सी जाती है साँसों का थमना सा लगता है
खुली आँखों से देखकर भी ये सारा इक सपना सा लगता है
भरी महफ़िल में होकर भी ये पागल दिल तन्हा सा रहता है
जब भी देखता हूँ तुमको .................................


इतनी शिद्दत से मिली हो तुम मुझको
कि दुआ में उठे ये हाँथ भला क्या मांगे
जिन आँखों ने किया हो दीदार तेरी आँखों का
वो अपने लिए प्यारे से भला ख्वाब क्या मांगे
इन होंठों ने जो कर लिया सजदा तेरे हांथों का
वो खुदा से अपने लिए भला फरियाद क्या मांगे


जहाँ भी जाता हूँ हर मंजर में मैं पता हूँ बस तुझको
कि अब दूर होकर भी तेरे पास होने का एहसास है मुझको
सुनता हूँ तेरी साँसों को, तेरी धड़कन को बस हर पल
कि हर संगीत में तेरी झलक का अब गुमान है मुझको
इक ख्वाहिश है मेरी, लिखूं तेरी शान में मैं दो शब्द
अब तेरे प्यार में शायर बनना इकरार है मुझको


मेरी जिंदगी भी तु है, मेरा गुजारा भी अब तु है
तु ही मेरा साहिल है, किनारा भी अब तु है
तेरी आँखें ही मेरी दुनिया, मेरा आशियाना भी तु है
मेरी तक़दीर भी तु है, तक़दीर का हर सितारा भी अब तु है
तेरा साथ ही मेरे लिए अब इबादत है बस
कि मेरी जन्नत भी तुझसे है, जन्नत का हर नजारा भी अब तु है