Tuesday, February 12, 2013

क्या कहूँ मैं इसे ???

तेरी इनकार भी आज मुझे इकरार लगती है 

तेरी हर हँसी भी आज मुझे प्यार लगती है 
तेरे होंठ भले कुछ ना कह रहे हों मुझसे पर
तेरी धड़कन तेरे दिल की बातें बयाँ करती है
अब बता तू ही, कैसे यकीन मैं दिलाऊँ तुझे??
कह दे तू ही मुझे, अब क्या इसे नाम दूँ???
प्यार कहूँ इसे या फिर इसे तेरा नाम दूँ???


Monday, February 11, 2013

क्या कहूं मैं इसे ??

पता  नहीं मैं इसे क्या नाम दूँ  ??

प्यार कहूँ मैं या फिर इसे तेरा नाम दूँ ??

समझता नहीं ये पागल दिल इन बातों को

बस खोया रहता है तेरी याद में दिन रातों को

तू ही अब समझा मेरे इस दिल-ए-नादां को

कह दे अब तू ही, क्या कहूं इसे, किसका नाम दूँ  ??


प्यार कहूं मैं इसे, या फिर इसे तेरा नाम दूँ ??

Friday, May 21, 2010

आशा

देख उन घने बादलों के परे भी तेरा कोई ना कोई इक आशियाँ होगा
रात के साए ना होंगे बस,कल फिर से तेरे लिए एक नया सवेरा होगा
कोई करता होगा तेरा इंतज़ार फिर से, यहाँ अब ना कभी तू अकेला होगा
थाम ले हाँथ तू अपने हमसफ़र का, कि तन्हाइयों का अब ना यहाँ कोई बसेरा होगा
देख उन घने बादलों ................................

Friday, May 7, 2010

इन्तजार

हर वक़्त बस तेरा इन्तजार था मुझको
तु आयेगी एक दिन ये एहसास था मुझको
बस बैठा रहा तेरी राहों में मैं ये सोंचकर
कि मेरी नब्ज की उठती लहरों का आगाज था तुझको

चाहा था मैं तुझको अपना खुदा जानकर
कि फ़ना कर दिया खुद को मैंने प्यार में तेरे
तेरे हर लब्ज को तराशा मैंने आयतों कि तरह
कि बना दिया काफिर खुद को खुदाई में मैंने

उस मंजर में भी मुझको इन्तजार था बस तेरा
आयेगी तु और थामेगी अपने हाँथ में हांथों को मेरा
ख्वाहिश थी उस पल करूँ बस दीदार तेरी आँखों का
पर छोड़ दिया था दिल कि धड़कन ने साथ अब मेरा

आज भी गुजरता हूँ तेरे कूंचों से मैं हर वक़्त
तुझको छुते हवा के ये झोंके अब पहचान है मेरी
रहे ये मुस्कान सदा यूही तेरे होंठों पर
कि तेरी आँखों कि नमी उड़ना अब शान है मेरी

Thursday, April 8, 2010

राही

हूँ राही मैं अकेला चलना मेरा करम है
ना रास्ता पता है न मंजिल की कोई नज़र है
ना आशियाँ मेरा है ना कोई हमसफ़र है
इक बात का पता है बस इतनी सी ख़बर है
हूँ राही मैं अकेला चलना मेरा करम है

ना जनता मैं कौन हूँ कहाँ से मैं उठा था
ना है पता मुझे की किस राह कल चला था
कब सोंचा था यहाँ पे क्या पाया क्या है खोया
ना स्वप्न थे जहन में ना था कभी मैं सोया
कब आई थी ख़ुशी कब था ग़मों में रोया

सोंचा था इस किनारे कुछ देर और रुकूंगा
इक प्यारी सी कली की खूबसूरती लिखूंगा
ना जाने इस फिजां पर अन्धकार कब है छा गया
उस बाग़ की कली को खिजां कब है खा गया
मैं देखता रहा बस मुस्कराया और फिर चल दिया

इक रौशनी को देखा उस क्षितिज में धूमिल सी
जा पहुचा मैं वहां पर जहाँ बैठे थे सभी
वे लोग वो थे जिनको मैंने देखा था कभी
तभी अचानक मैंने पाया उसी कली को
आया मुझे समझ तब आ पंहुचा मैं कहाँ पर
अब ना रास्ता है आगे मंजिल ना कोई सफर है
हूँ राही मैं अकेला.....................

इंसान हूँ मैं??????????

इंसान हूँ मैं या उस कवि की रचना का मूल हूँ मैं?
एक रहस्य, एक प्रश्न या फिर एक अनसुलझी पहेली हूँ मैं?
हास-परिहास व्यंग्य या फिर निराशा का प्रतीक हूँ मैं?
क्या उस वीणा की टूटी हुई तारों की तकदीर हूँ मैं?
इंसान हूँ मैं या उस कवि की रचना का मूल हूँ मैं?
ना जाने कितनी पढ़ा समझा और टटोला गया
कितनी आंखों से आंसू गिरे, कितनो को पोंछा गया
सदियाँ बीत गई फिर भी खड़ा रहा मैं वहीँ पर
समेटकर अपने अंदर दर्द और ग़मों की लकीर को मैं
इंसान हूँ मैं या उस कवि की रचना का मूल हूँ मैं?
देखा है अनगिनत हस्तियों को उठते, उठकर गिरते हुए
देखा है क्रोध द्वेष की ज्वाला में जिंदगियां जलते हुए
भाई-भाई को ही लड़ते और घरों में सरहदें पड़ते हुए
प्यार के धागों को तोड़ मोतियों को बिखरते हुए
सोंचा मैंने ख़ुद पर, कौन हूँ मैं कैसी अनसुनी गीत हूँ मैं?
इंसान हूँ मैं या उस कवि की रचना का मूल हूँ मैं??

Wednesday, April 7, 2010